ताज ख़ान
नर्मदापुरम//
भारतीय संविधान का निर्माण केवल एक विधायी प्रक्रिया नहीं थी,बल्कि यह विविध समुदायों के बीच एक नैतिक अनुबंध था,जो उपनिवेशवाद की साझा पीड़ा और एक संप्रभु, समावेशी राष्ट्र के साझा स्वप्न से जुड़ा था। ऐसे समय में जब उपमहाद्वीप विभाजन और एकता के चौराहे पर खड़ा था,कई मुस्लिम नेताओं ने सांप्रदायिक अलगाव के बजाय संवैधानिक लोकतंत्र का मार्ग चुना।संविधान सभा में बैठे इन दूरदर्शी लोगों ने धर्मनिरपेक्षता,न्याय और समान अधिकारों को प्रतिष्ठित करने वाले एक कानूनी ढाँचे को आकार देने में मदद की।निष्क्रिय भागीदार होने से कहीं आगे, वे एक आधुनिक, बहुलतावादी भारत के सक्रिय निर्माता थे।उनका योगदान हमें याद दिलाता है कि भारत की अवधारणा कभी किसी एक धर्म या विचारधारा से नहीं,बल्कि स्वतंत्रता और एकता के लिए प्रतिबद्ध विचारों के एक गठबंधन से बनी थी।
दिल से दी गई शिक्षा समाज में क्रांति ला सकती है_मौलाना आज़ाद।
इन दूरदर्शी लोगों में सबसे प्रमुख थे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद,जो एक विद्वान,स्वतंत्रता सेनानी और स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे।संविधान सभा में उनकी उपस्थिति प्रतीकात्मक और महत्वपूर्ण दोनों थी।एक कट्टर मुसलमान और कट्टर राष्ट्रवादी,आज़ाद ने लंबे समय से द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को खारिज किया था।अपने भाषणों में,उन्होंने दोहराया कि भारत का भाग्य धार्मिक अलगाव पर नहीं,बल्कि साझा इतिहास,पारस्परिक सम्मान और एक साझा भविष्य पर आधारित हो सकता है।आज़ाद की बौद्धिक गंभीरता और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता ने संविधान के कई प्रमुख प्रावधानों को प्रभावित किया।उन्होंने धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देने वाले अनुच्छेद 25 और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने वाले अनुच्छेद 30 का पुरजोर समर्थन किया।ये केवल संवैधानिक धाराओं से कहीं अधिक, विशेष रूप से उन मुसलमानों के लिए नैतिक आश्वासन थे जिन्होंने विभाजन के बाद भारत में रहने का विकल्प चुना था।आज़ाद ने भारत की शिक्षा नीति को आकार देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।शिक्षा मंत्री के रूप में,उन्होंने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी), भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) की नींव रखी और सभी जातियों व समुदायों में वैज्ञानिक सोच और आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा दिया।उनके लिए, किसी राष्ट्र की प्रगति केवल संवैधानिक आदर्शों पर नहीं, बल्कि प्रबुद्ध नागरिकों पर निर्भर करती है।उन्होंने एक बार कहा था,”दिल से दी गई शिक्षा समाज में क्रांति ला सकती है।
बेगम ऐज़ाज़ रसूल की उपस्थिति ने ही रूढ़िवादिता को चुनौती दी।
संविधान सभा में एक और महत्वपूर्ण मुस्लिम हस्ती बेगम ऐज़ाज़ रसूल थीं,जो इस ऐतिहासिक संस्था का हिस्सा बनने वाली एकमात्र मुस्लिम महिला थीं।उनकी उपस्थिति ने ही रूढ़िवादिता को चुनौती दी और एक गहरे पितृसत्तात्मक समाज में मौजूद बाधाओं को तोड़ा। बेगम रसूल लैंगिक अधिकारों और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की प्रबल समर्थक थीं। उनकी आवाज़ ने एक एकीकृत चुनाव प्रणाली बनाने के संकल्प को मज़बूत किया,जो आज भी भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया की रीढ़ बनी हुई है।
पूर्व प्रधानमंत्री सैयद मोहम्मद सादुल्लाह।
असम के पूर्व प्रधानमंत्री सैयद मोहम्मद सादुल्लाह एक अन्य प्रमुख व्यक्ति थे जिनकी अंतर्दृष्टि ने संघीय और अल्पसंख्यक हितों के बीच संतुलन बनाने में मदद की। नागरिकता और अल्पसंख्यक सुरक्षा उपायों पर बहस में उनके हस्तक्षेप ने भारत के बहुलवादी स्वरूप की परिपक्व समझ को प्रतिबिंबित किया।उन्होंने कानूनी समानता और सामाजिक समरसता पर ज़ोर दिया,विशेषाधिकारों की नहीं,बल्कि ऐसे संरक्षण की वकालत की जिससे हर भारतीय,चाहे वह किसी भी धर्म का हो,फल-फूल सके।
मुस्लिम आवाज़ हाशिये से नहीं,बल्कि भारत के हृदय से गूंजी।
ये मुस्लिम नेता अलग-थलग आवाज़ें नहीं थीं।वे मुस्लिम देशभक्ति के उस व्यापक परिवेश का हिस्सा थे जो इस विचार को खारिज करता था कि धर्म राष्ट्रीय निष्ठा का निर्धारण करे। आज़ादी से पहले और बाद के वर्षों में, जमीयत उलेमा-ए-हिंद जैसे संगठनों और खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे व्यक्तियों (हालांकि संविधान सभा में नहीं)ने भारत की एकता और संवैधानिक मूल्यों का पुरज़ोर समर्थन किया।उनकी सामूहिक उपस्थिति सांप्रदायिक दुष्प्रचार का खंडन और भारत के लोकतांत्रिक भविष्य में विश्वास की पुनः पुष्टि थी।
हमें उन मुस्लिम नेताओं को अवश्य याद करना चाहिए।
भारतीय संविधान के निर्माण पर विचार करते हुए,हमें उन मुस्लिम नेताओं को अवश्य याद करना चाहिए जो इसके निर्माण में अग्रणी भूमिका में रहे,किसी समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में नहीं, बल्कि एक राष्ट्र के दूरदर्शी के रूप में।उनकी विरासत केवल संविधान के पन्नों में ही नहीं,बल्कि उन अधिकारों और स्वतंत्रताओं में भी समाहित है जिनका हम आज आनंद लेते हैं।ये कहानियाँ हमें याद दिलाती हैं कि आधुनिक भारत की नींव सभी धर्मों के लोगों के हाथों रखी गई थी।संविधान केवल एक कानूनी दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि यह उन पुरुषों और महिलाओं के साहस, दूरदर्शिता और देशभक्ति का प्रमाण है जिन्होंने विभाजन के बजाय एकता को चुना। और उस पवित्र सभा में, मुस्लिम आवाज़ हाशिये से नहीं,बल्कि भारत के हृदय से गूंजी।
-इंशा वारसी
फ्रैंकोफोन और पत्रकारिता अध्ययन,
जामिया मिलिया इस्लामिया.

